Thursday, February 24, 2011

बिंदिया बिस्तर पे छूट गई....


 कैसे सखियों से बताऊ ये बात
            बडी मुश्किल में गुज़री वो रात
 जिस-जिस  ने सुनी मेरी आहें
            नींद उनकी ऑखों से टूट गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 रात ऐसी उलझी मैं पिया से
            सुबह तलक सुलझ ना पाई
 आईनें पे जब शक्ल निहारी
            मेरी निगाहें खुद से रुठ गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 यूं सहेला-सहेला कर केशों को
            उमंगें भरीं थीं मुझमें ज़लिम नें
 चाह कर स्वयं को रोक ना पाई
            और उस राते-ख़ुमारी में डूब गई
   'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 शंमा उसने बुझाई थी जानकर
            मेरी बेबस निगाहें पहचान कर
 मैं  उसकी असीम ख्वाहिशो में
            नांदा अपनी सारी हदें भूल गई
   'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 कभी बाबुल के आंगन मे इठ्लाती
           अपनी मुश्कान से घर को महेकाती
 झूले में झूलने वाली मैं कमसिन
            शरमां के उसकी बांहों मे झूल गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'

4 comments:

  1. अफ़साना-ए-उल्फ़त है, इशारों से कहेंगे
    तुम भी नहीं समझे तो सितारों से कहेंगे

    ReplyDelete
  2. वाह शेष जी
    बहुत बढ़िया !!!!

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete