आईना देखता हू तेरा चेहरा नजर आता है
खुद को कैसे देखू तू नजरो मे बसता जाता है
रात की धुधली चादरे ओढे बैठी थी सवा
जुगनू भी अब मुझे तारा नज़र आता है
दरिया मे हाध डाल के क्या ढूडता है
इसका दिल कहा किसी को नज़र आता है
राह पे बैठा है ये वक्त मुसाफिरो का है
न मलाल कर एक जाता है एक आता है
खुमारी के ये बादल कभी छटेगे भी की नही
ये वक्त मुझे तेरे बगैर कितना सताता है
कैसे नज़रो से उतर के बात दिल तक पहुचती है
ये प्यार कब होता है कौन जान पाता है
मैने आपनी गली मे फूल बिछा रखे है
सुना है कि मेरा खुदा यहा से आता जाता है
मेरी मोह्ब्बत भी मेरी नज़्म की तरह है
शवाब इसका दिन व दिन बढता जाता है
जब भी आईना देखता हुँ,
ReplyDeleteसाफ़ साफ़ नज़र आता है अकेलापन
फ़िर सोचता हुँ,
ये आईना साफ़ किया किसने.........