दौडती-भागती गाडियॉ बिखरा हुआ इंसान है
बडे शहरों में शायद वक्त ही भगवान है
चार लोग जानते तो थे अपने शहर में
यहॉ बस खुदगर्जो में झूठी शान है
अजनबी बन के मिलते हैं अपने अपनों से
जैसे हर कोई एक दूसरे से अंजान है
असीरों को उडनें के झूठे ख्वाब दिखा कर
यहॉ ज़िदगी दूर से लगती कितनी आसान है
लौट आओ कुछ नहीं रखा परदेश में
बूढी ऑखो में बची थोडी ही जान है
जानें किसकी तलाश में चले आए यहॉ
'शेष' तुम्हारे घर में तो हर सामान है
अब के साल, परदेश में मेरे साथ
छोटे से कमरे में, थोडा उदास
थी होली,
कोई जानता नहीं,इस अंजान शहर में
जाऍ भी तो जाऍ आखिर किसके पास
इन काम-काज के बेकार चक्करों में
घर ना जा पाने से थोडा नाराज
थी होली,
सोचता रहा की क्या करुं अकेले
तो पिछली यादों की पोटली खोली
मन जैसे रंगो में नहा गया 'शेष'
तसब्बुर में बसी कितनी जानदार
थी होली... .
दिल मेरा मुझसे हमेशा ये सवाल पूंछता है
अभी और कितने गम है ये हिसाब पूंछता है
बैठ जाते हो रातों को उठ-उठ के अक्सर
अभी और कितना रुलाएगा ये ख्वाब पूंछता है
भूल जाऍ नाम पर चेहरा याद रह जाता है
क्या वो अब भी करेगा ये सलाम पूंछता है
यू ही चंद लमहों के सुकून की खातिर
अभी और कितना पिओगे ये शराब पूछता है
सब कुछ तो खो चुके हो ज़मानें में 'शेष'
अभी और क्या मिलेगा ये ईनाम पूछता है