अपनी मोहब्बतों मे बदलने लगा मंज़र
एक तेरे शहर में, एक मेरे शहर में
झिलमिल धूप में कुछ बादल के टुकडे
मशरुफ़ है देखो इधर उधर चलने मे
कुछ बातें तेरी कुछ बाते मेंरी
होने लगी हर गली-मोहल्ले में
एक तेरे शहर में,एक मेरे शहर में
आया मौसम फिर दस्तक दी है
पुरानें घोसलों पे कुछ नए परिंदो नें
तनहा चांद् जाने क्यों चुप सा है
क्या सोच रहा है कुछ कहनें में
एक तेरे शहर में, एक मेरे शहर में
एक नदी हम दोनों के शहर में
क्यों ना दिये में भेजें ख़त रख के
अब गुज़रे लमहो को न कुरेदो 'शेष्'
फिर आऍगे वो सावन के महीनें
मैं तन्हा था और तन्हा ही रहा
ReplyDeleteढुंढा बहुत पर कोई ना मिला
न तेरे शहर में, न मेरे शहर में............