Tuesday, March 22, 2011

परदेश....






दौडती-भागती गाडियॉ बिखरा हुआ इंसान है
बडे शहरों  में  शायद  वक्त  ही  भगवान  है


चार लोग  जानते  तो  थे  अपने  शहर में
यहॉ  बस  खुदगर्जो  में  झूठी  शान  है


अजनबी  बन के मिलते हैं अपने अपनों से
जैसे  हर  कोई  एक  दूसरे  से  अंजान  है


असीरों  को उडनें के झूठे  ख्वाब  दिखा  कर 
यहॉ ज़िदगी दूर से लगती कितनी आसान है


लौट  आओ  कुछ  नहीं  रखा  परदेश  में
बूढी   ऑखो  में  बची  थोडी  ही  जान है


जानें किसकी तलाश में  चले आए यहॉ
'शेष'  तुम्हारे  घर  में  तो  हर सामान है        

9 comments:

  1. khuaab saare badal gye bade shahar me aake
    ham khud hi lad gye bade shahar me aake

    pahle aoliya huaa karte the mere sangi saathi
    ham bhi dange kar gye bade shahar me aake
    ~ami'azeem'

    http://amiajimkadarkht.blogspot.com/

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  2. अजनबी बन के मिलते हैं अपने अपनों से
    जैसे हर कोई एक दूसरे से अंजान है
    बहुत खूब लिखा है आपने ...आज आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ लेकिन आपकी रचनात्मक विविधता से परिचय अच्छा लगा ..मन को भा गया ..आप यूँ ही लिखते रहें ..शुभकामनाओं सहित

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  3. कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

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  4. धन्यवाद राम जी,..बस यूं ही थोडा बहोत लिखता रहेता हूं.....आपको पसंद आया ये मेरा सौभाग्य है.....

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  5. आपका आभार ...आशा है आपका स्नेह और मार्गदर्शन यूँ ही अनवरत मिलता रहेगा ...शुभकामनायें

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  6. जानें किसकी तलाश में चले आए यहॉ
    'शेष' तुम्हारे घर में तो हर सामान है

    बहुत अच्छा!
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  7. shukriya vivek bhai.....aapki is hosla-afzai ke liye.........

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  8. सुन्दर कटाक्ष

    क्यूँ परदेस गया रे साथी
    यहाँ भी तो दाना पानी है

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