Thursday, February 24, 2011

बिंदिया बिस्तर पे छूट गई....


 कैसे सखियों से बताऊ ये बात
            बडी मुश्किल में गुज़री वो रात
 जिस-जिस  ने सुनी मेरी आहें
            नींद उनकी ऑखों से टूट गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 रात ऐसी उलझी मैं पिया से
            सुबह तलक सुलझ ना पाई
 आईनें पे जब शक्ल निहारी
            मेरी निगाहें खुद से रुठ गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 यूं सहेला-सहेला कर केशों को
            उमंगें भरीं थीं मुझमें ज़लिम नें
 चाह कर स्वयं को रोक ना पाई
            और उस राते-ख़ुमारी में डूब गई
   'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 शंमा उसने बुझाई थी जानकर
            मेरी बेबस निगाहें पहचान कर
 मैं  उसकी असीम ख्वाहिशो में
            नांदा अपनी सारी हदें भूल गई
   'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'


 कभी बाबुल के आंगन मे इठ्लाती
           अपनी मुश्कान से घर को महेकाती
 झूले में झूलने वाली मैं कमसिन
            शरमां के उसकी बांहों मे झूल गई
    'कि बिंदिया बिस्तर पे छूट गई'

एक तेरे शहर में, एक मेरे शहर में



    
      अपनी मोहब्बतों मे बदलने लगा मंज़र
      एक  तेरे  शहर  में,  एक  मेरे  शहर  में
       
     झिलमिल धूप  में कुछ बादल के टुकडे
     मशरुफ़ है  देखो  इधर  उधर  चलने मे
     एक  तेरे  शहर  में ,  एक  मेरे  शहर में

       कुछ  बातें  तेरी  कुछ  बाते  मेंरी
       होने  लगी  हर  गली-मोहल्ले में
       एक तेरे शहर में,एक मेरे शहर में
 
      आया  मौसम  फिर  दस्तक  दी है
      पुरानें घोसलों पे कुछ नए परिंदो नें
      एक  तेरे शहर में, एक मेरे शहर में

      तनहा  चांद्  जाने  क्यों  चुप सा है
      क्या  सोच  रहा है  कुछ  कहनें  में
      एक तेरे शहर में, एक मेरे शहर में
 
    एक  नदी  हम  दोनों  के शहर में
       क्यों ना दिये में भेजें ख़त रख के
       एक तेरे शहर में,एक मेरे शहर में 
 
   अब गुज़रे लमहो को कुरेदो 'शेष्'
      फिर  आऍगे वो  सावन  के महीनें 
      एक तेरे शहर में, एक  मेरे  शहर में








Monday, February 21, 2011

बिना तेरे एक और शाम....




  बिना तुमको  लिए और एक शाम आई
  शराब  ही फिर दर्दे दिल  को काम आई

 आहटें  रात भर सुनता  रहता   हुं  मैं
 हर दम  खाली  चिट्ठियां  मेरे  नाम आई

 तुम्हे  क्या  मालूम  अपने  बीमार का हाल
 जिसे ना दवा काम आई  ना दुआ  काम आई

 महफ़िल  में सब अपनी-अपनी सुनाते रहे
 मैनें  होंठ सी  लिए जब  उनकी  बात  आई

 ना वो  मेरा  हो  सका ना मैं किसी और का
 सोचता हुं अक्सर ज़िदंगी किस  काम आई

 नही भूलता 'शेष' जाते  वक्त वो रोना उसका
 मुझको याद  हमेशा वो बिछड्ने की रात आई



Friday, February 18, 2011

अंजान....


  
  महफ़िल में वो हमसे अंजान रहे
  कभी  जो  इस दिल  की जान रहे


  वक्त  ने फ़ासले तय किए  होंगे
  हम तो हर दम उनके साथ रहे


  उम्र  बढती  गई  इंतिज़ार  में
  वो जब भी  मिले  जवान  रहे
    
  उनसे कहो की भूल जाऍ हमें
  चाहे  हम कितना भी याद रहें


  नाम तक  नही लेता  कोई उनका
  'शेष' हमेशा इश्क मे  बदनाम रहे

Thursday, February 17, 2011

एक एहसास....

 




    
        कुछ  सीखो  इनसे , ये दरख्तो  पे अपने  घर बनाते  हैं
        बेठिकाना  पंछि  भी , हमसे  ज्यादा खुश नजर आते हैं


        जब  ख्वाब  मे  दीन-ए-इलाही को  मुकम्मल देखता हुं
        चॉद  पे   बैठ  कर, फ़रिस्ते   मुझसे   मिलनें   आते  हैं


        ख़ुदा   नहीं  बनते   हुजूम   लगनें   से   सियासतगार
        देता  वही  है , लोग  जहॉ  दुआ  मे अर्जियॉ लगाते  हैं


        शायरों   की   ज़िदगी  कोई   रंगीन   कहानीं  नहीं  
        ये  जितना  रोते  है,  उतना  मुस्कुरा  के  गाते  हैं
      
        मयख़ाना  है मेरे घर  के  सामनें  तो  मैं  क्या  करु
        सुबह  लोग   मुझे  हर  शाम   का  मंजर  बतातें  हैं


       महीनों  बुशट  का  ज़ेब नहीं  सिलवा  पाये थे अब्बा
       'शेष'  जानता  है  ख़ुदा  से  पहले   मां-बाप  आते  हैं

     दीन-ए-इलाही - (ये एक धर्म जिसे अकबर ने बनाया था,इसे किसी भी धर्म और जाति के लोग  अपना सकते थे.इसका उद्देश सभी को एक धर्म मे पिरोना था.)


   

Monday, February 14, 2011

Valentine..Day..... Special..




   दिल  जिसके  इंतिजार  मे , उम्मीदों   के  घर बना  रहा  है
   वो   गैरों  के   साथ ,  मोह्ब्बत  के  त्योहार   मना   रहा   है


   मुझसे    कह्ता   था   साथ   रहेगा    सांसो  के   बाद   भी
   आज  जब  कोइ  नही ,वो  भी अपना  फैसला सुना रहा है


   सब   इश्क  के  बगीचों  में  मोहब्बत  के  फूल  चुन  रहे  हैं
   मुझे   मेरा  खुदा   दिल   ही   दिल  में   कांटे   चुभो  रहा  है

                 
   


 परिंदो के  घोसलों में  भी  आज  कुछ   चहेल-पहेल  है
 जैसे वषों  बाद लौट कर , कोई माझि  अपना आ रहा है 


 एक ही चीज़ तो मांगी थी , मैनें  हमेशा अपनी दुऑओ में
क्या करूगा उसके बदले गर वो नया ताजमहल भी बना रहा है


हवाऍ  तेज  हैं  साहिल   पे  अकेला  तनहा  बैठा ' शेष ' 
सोच  रहा है  उसने जो किया  उसी  कि  सजा पा  रहा है





        


Thursday, February 10, 2011

...अमन.......


उजली  रात  के  आंचल  पर 


जानें कौन सारंगी सा बजाता है    

शायद कोई फ़रिस्ता गुज़रा है शहर से 

कौन ये आमन  के गीत  सुनता है 

कब ये उलझी मज़हबी रंजिशे 

इस  चमन  कि  सुलझेगीं 
वसुधैव-कुटुम्बकम का सपना
क्यों सच से दूर होता जाता है


जब उसनें तुझे एक सा बनाया

तु  क्यों   यहॉ   बंट  गया
ज़मीं के नीचे  कोई  मज़हब नहीं
हर धर्म चिता के साथ जल जाता है



ओ  आतंकवाद  का   घिनौना  दर्पण 

ओ शहर  मे आपनी लाठिओं का प्रदर्शन
सब ठीक  हो  जाऐ गर  तु  इंसा बने
क्यों एक दूसरे को आपनी ताकत दिखाता है













आगर  कह्ते  हो की साबका सांई 

बच्चों  के  दिलों  में  बसता  है

तुम ही बताओ की बचपन में कौन
एक दूसरे को अपन मज़हब बाताता है




क्यों उसे मज़ारो  पे  मंदिरो पे ढूंडता है

एक  शक्ती  के  लिये  दर-दर घूमता है
पाक दिल पाक ईमांन बना के खुद को देख
हर  धर्म  तुझमें  नजर  आता  है ॥   

Thursday, February 3, 2011

अफ़साना


तेरा मेरा अफ़साना क्या है
बस  चन्द  पुरानी  बाते  है
गुज़री कभी तेरे तसब्बुर मे
वो  कुछ  तनहा  सी  राते  है

मजबूत   इरादे   वलो    को
पथ्थर दिल लोग समझते है
जा   कर  देखो   मन्दिर   मे
आखिर पूजे  वो  ही  जाते  है

आती    है    जवानी     जब
कई मुसाफ़िर गुज़रा करते है
ये   सावन   का   महीना  है
बादल   आते    जाते    है

कुछ तनहा से लोग जमाने मे
इस  तरहा  वक्त    बिताते   है
जैसे  हर  त्योहार  पे  बन्जारे
पोशाक   पुरानी    सजाते   है

तनहा - तनहा   जीने   मे
एक  सुकून   भी  मिलता है
ह्न्सना हो तो मिलना 'शेष' से
वो  ह्न्सने  का  राज़  बताते है

एक  कल मेरा है  तेरा भी होगा
कुछ मैने खोया तू ने पाया होगा
   तू   कहे       मै      कहू
सब    बेकार   कि   बाते    है

आईना......



आईना देखता हू तेरा चेहरा नजर आता है
खुद को कैसे देखू तू नजरो मे बसता जाता है

रात की धुधली  चादरे ओढे बैठी थी सवा
जुगनू भी  अब  मुझे  तारा नज़र आता  है

दरिया  मे  हाध  डाल  के    क्या   ढूडता  है
इसका दिल  कहा किसी को  नज़र आता है

राह  पे  बैठा  है  ये  वक्त  मुसाफिरो  का  है
न  मलाल  कर एक जाता  है  एक आता है

खुमारी  के ये बादल  कभी  छटेगे भी की नही
ये  वक्त  मुझे  तेरे  बगैर   कितना   सताता  है

कैसे नज़रो से उतर के बात दिल तक पहुचती है
ये   प्यार   कब   होता  है  कौन   जान   पाता  है

मैने   आपनी   गली  मे  फूल   बिछा  रखे  है
सुना है कि  मेरा  खुदा  यहा से आता जाता है

मेरी   मोह्ब्बत  भी  मेरी  नज़्म  की  तरह है
शवाब  इसका  दिन  व  दिन  बढता  जाता  है

खामोशी......


खामोशी   की    एक    जुवा     होती    है
यू    हर    बात    बताई     नही      जाती
हुनर सीख ले खामोशिओ को समझने का
  कहे  कि   इनसे   सदाऐ   नही   आती

जुवा नही खोली और बहुत कुछ कह् दिया
मेरी आन्खो मे तुझे वो गजल दिखाई देगी
जिसकी  तहरीरे   रोशनाई  से  नही  आती
और  जो   होठो  से  सुनाई   भी   नही जती
 
तेरे नाम से हर सास जहेन मे उतरती है,
यादो  को  तेरी सारे जिश्म मे फ़ैलाती है,
अगर   इतनी   कुर्बत   हो   तो      फ़िर,
बीच   की   दूरिया   घटाई    नही   जती

तू  मेरे  अल्फ़ाजो  का   साहिल  है
ये  तुझसे  से  शुरु तुझमे  खत्म है
मेरी गजले आईना है खुद को देख
ऐसी  मोहब्बत  जताई  नही  जाती

तेरी   एक  हा   और    ना     पर
मेरे  ख्वाबो  की   ताबीर  छिपी है
कुछ दूर के लिये यू ही साथ हो जा
अकेले ये कश्ती चलाई नही  जाती

Wednesday, February 2, 2011

         ढ़ूङते-ढ़ूङते तुझको, मुश्किल से पहुचा हु
          बडा अजीब लहेजे वाला, ये तेरा देश है
          रुह तेरे इन्तज़ार मे,अब तक रुकी हुई है
          आ ज़ाओ  बस कुछ, साशे ही 'शेष' है |