कैसे सखियों से बताऊ ये बात
बडी मुश्किल में गुज़री वो रात
जिस-जिस ने सुनी मेरी आहें
नींद उनकी ऑखों से टूट गई
रात ऐसी उलझी मैं पिया से
सुबह तलक सुलझ ना पाई
आईनें पे जब शक्ल निहारी
मेरी निगाहें खुद से रुठ गई
यूं सहेला-सहेला कर केशों को
उमंगें भरीं थीं मुझमें ज़लिम नें
चाह कर स्वयं को रोक ना पाई
और उस राते-ख़ुमारी में डूब गई
शंमा उसने बुझाई थी जानकर
मेरी बेबस निगाहें पहचान कर
मैं उसकी असीम ख्वाहिशो में
नांदा अपनी सारी हदें भूल गई
कभी बाबुल के आंगन मे इठ्लाती
अपनी मुश्कान से घर को महेकाती
झूले में झूलने वाली मैं कमसिन
शरमां के उसकी बांहों मे झूल गई